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अब हम काग़ज के नाव नहीं बनाते. मेले में घूमने के लिए माँ-बाप से ज़िद नहीं करते और न ही झूला झूलने, गुब्बारे खरीदने और चाट खाने की ज़िद करते हैं. बागों में छुपकर आम के टिकोले पर ढ़ेला मारने वाले बच्चों को आज हम बेबसी से देखते हैं. हमारा बचपन काफी पीछे छूट चुका है पर स्मृति में झाँकने पर ऐसा लगता है जैसे वो अभी की बातें हो.
बचपन मानव-जीवन की स्वर्णिम अवस्था है. सामाजिक बंधनों से बेपरवाह यह स्वच्छंद नदी की भाँति कलकल करती हुई बहते चली जाती है. अपनी राह में आने वालों को निर्मल करते बचपन की धारों को कुंद करने के लिए तरह-तरह के अवरोध उत्पन्न किए जाते हैं. लेनदारी, देनदारी, परिवार, समाज या कहें दुनियादारी की शय्या को पार करते-करते ये धार सूखती जाती है, और फिर जवानी का किनारा पकड़ बचपन कहीं पीछे छूट जाता है.
लेकिन इससे पूरी तरह पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता. रह-रह कर इसकी याद दिल में टीस मारती है और लोग स्मृति के पन्ने पलट इस पर पड़े धूल को साफ करने लग जाते हैं. अगर आपकी स्मृति में भी बचपन के पन्नों पर धूल की परत जम चुकी है, तो जागरण जंक्शन आपको इसे साफ कर सभी पाठकों से साझा करने का मौका दे रहा है.
नोट: अपना ब्लॉग लिखते समय इतना अवश्य ध्यान रखें कि आपके शब्द और विचार अभद्र, अश्लील और अशोभनीय ना हों तथा किसी की भावनाओं को चोट ना पहुंचाते हों.
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