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बहस: न्यायपालिका बनाम विधायिका संघर्ष

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सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली एक संविधान पीठ ने जिसमें जस्टिस आरवी रवींद्रन, पी. सदाशिवम, जेएम पांचाल और आरएम लोढ़ा भी शामिल रहे, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को एक भूमि घोटाले में शामिल होने के आरोप में पंजाब विधानसभा से निकाले जाने के फैसले को 26 अप्रैल को रद्द कर दिया.

amarinder1पीठ ने अमरिंदर सिंह की सदस्यता बहाल करते हुए व्यवस्था दी कि राज्य विधानसभा के पास अमरिंदर और अन्य को उनके द्वारा कार्यपालक के रूप में किए गए किसी कार्य के लिए निष्कासित करने का अधिकार नहीं है. पीठ के अनुसार, विधानसभा ने त्रुटिपूर्ण ढंग से कार्यवाही की क्योंकि अनियमितताएं 12वीं विधानसभा के दौरान की गईं जबकि निष्कासन 13वीं विधानसभा ने किया.

उल्लेखनीय है कि पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को सदन ने अवमानना व कदाचार का दोषी बताते हुए सदस्यता से बर्खास्त कर दिया था.

SupremeCourtIndia.jpgअदालत ने अपने आदेश में धन के बदले प्रश्न मामले में बर्खास्त सांसदों को लेकर दिए गए निर्णय को आधार बनाया है जिसके मुताबिक, अपनी अवमानना के खिलाफ सदन की कार्यवाही यदि असंवैधानिक है, तो उसकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. संविधान पीठ ने इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 105 और 194(3) के प्रावधानों का उदाहरण भी दिया. इन अनुच्छेदों में संसद और विधानसभा के विशेषाधिकारों का उल्लेख किया गया है.

निश्चित रूप से देश में एक बार फिर इस मुद्दे पर बहस छिड़ गयी है कि क्या न्यायालय को विधायिका के हर कृत्यों की समीक्षा का अधिकार है. साथ ही, कहीं न्यायालय हस्तक्षेप की प्रवृत्ति तो नहीं अपना रहा है? हालांकि अदालत ने यहाँ भी स्पष्ट किया कि वह विधान सभा चलाने की प्रक्रिया में कोई दखल नहीं दे सकती. किंतु यदि सदन अपनी अवमानना को लेकर किसी को दंडित करता है, तो सदन के इस विशेषाधिकार की समीक्षा अदालत कर सकती है.

यह कोई पहली बार नहीं है जबकि न्यायालय और विधायिका के बीच संघर्ष की स्थिति बन रही हो. इससे पूर्व भी कई बार न्यायालय ने विधायिका द्वारा लिए गए निर्णयों के विरुद्ध समीक्षात्मक कार्यवाही की है किंतु ऐसा पहली बार हुआ है, जब अदालत ने विधायिका द्वारा बर्खास्त किए गए किसी सदस्य की सदस्यता बहाली का आदेश दिया है.

भारत में सत्ता के तीन केंद्र हैं विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका. न्यायपालिका अपने कार्य क्षेत्र में पूर्णतया स्वतंत्र है. किंतु यदि विधायिका या कार्यपालिका से कोई अनियमितता होती है या किसी संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन किया जाता है तो ऐसी स्थिति में न्यायालय उनके कृत्यों की समीक्षा कर उन्हें अवैध ठहरा सकता है.
आम तौर पर भारत में न्यायपालिका, विधायिका के कार्यों में कोई हस्तक्षेप तो नहीं करती है लेकिन मामला तब विवादित हो जाता है जबकि कई बार विधायिका ऐसे निर्णय कर लेती है जिससे संविधान के किसी प्रावधान के उल्लंघन की स्थिति बनती है. चूंकि उच्चतम न्यायालय ही संविधान के रक्षक की भूमिका में है इसलिए यह उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह ऐसे सभी मामलों पर निगाह रखे और किसी भी गैर-संवैधानिक प्रावधान को आंशिक या पूर्णतया रद्द कर दे.

इसके अलावा न्यायालय पर एक और आरोप न्यायिक सक्रियता का लगाया जाता है. कई बार जब न्यायालय स्वयं ही पहल कर कार्यपालिका को कुछ कृत्यों के निर्वहन का आदेश देता है तो ऐसी स्थिति में कई प्रश्न खड़े किए जाते हैं. यथा, क्या न्यायालय को खुद ही कार्यपालिका के कृत्य करने का अधिकार है? कहीं न्यायालय तानाशाही रवैय्या तो नहीं अपना रहा है जबकि भारत में लोकतांत्रिक पद्धति को अपनाया गया है?

निश्चित रूप से शासन के सभी कार्य तभी सुचारु रूप से चल सकते हैं जबकि उसके सभी अंग अपनी जिम्मेदारियों को समझें और अपने-अपने कृत्यों का उचित रीति से निर्वहन करें. इन तीनो अंगों में कोई भी टकराहट अंततः हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को क्षति ही पहुंचाएगी.

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